वो एक दो मंजिला मकान था, जिसके भीतर से लड़ने की आवाज़ें आ रही थीं जिसे मेन गेट पर खड़ा लगभग पच्चीस वर्षीय व्यक्ति बड़ी आसानी से सुन पा रहा था पर कुछ साफ़ साफ़ समझ न आया।
वह मेन गेट खोल अंदर जा पहुंचा। वह एक खूबसूरत सजा धजा घर था। हर तरफ महंगे फर्नीचर , कोनो में रखी एंटीक स्टेचूज़ और हॉल की छत पर टंगा शानदार झूमर ये बताने के लिए काफी था की वह घर किसी अमीर व्यक्ति का ही था।
उसने उन सब से ध्यान हटाया और वापस उन आ रही लड़ाई की आवाज़ों पर गौर किया। वे ऊपर किसी कमरे से आ रही थीं। वह सीढ़ियों की ओर बढ़ चला उन आवाज़ों को और करीब से सुनने के लिए जो उसे बड़ी जानी पहचानी सी लग रही थीं और ये दीवारें.!!.. ये न जाने क्यों उसे इतनी पहचान की नज़रों से देख रही थीं?
एक पल को वह ठिठका की कहीं वह अन्य किसी के घर में घुस कर अनुशासन की सीमा तो भंग नहीं कर रहा है..
खैर छोड़ों! अगर वह ऐसा कुछ कर भी रहा है तो बाद में मांफी मांग लेगा और ये बता देगा की दरवाज़ा खुला था... वैसे भी वह कोई चोर थोड़े ही है... लेकिन एक बार उन आवाज़ों को स्पष्ट तौर पर सुन कर ही जाएगा।
कुछ देर बाद वह उस कमरे के बिलकुल बाहर खड़ा था.. दरवाजे पर!.. लेकिन दरवाज़ा बंद था, अचानक उसे अपने पैरों में पहने जूते कुछ ज्यादा ही चमकते हुए प्रतीत हुए उसने नीचे देखा और पाया कि दरवाज़े के नीचे से इतनी चमचमाती रोशनी! मानो कमरे में सूरज कैद हो।
वह एक बार फिर धर्मसंकट में था कि.. उसे दरवाज़ा खोलना चाहिए या नहीं... फिर उसने जैसे भगवान का नाम लेकर, अपने कपकपाते हाँथ की मात्र एक अंगुली से उस दरवाज़े को ठेला और केवल उतने ही ज़ोर लगाने से वह दरवाजा ' ..चर.. चर.. ' की आवाज़ करते हुए खुल गया और उसके खुलते ही उस व्यक्ति की आँखें अपने आप भिंच गयीं..
कितनी तेज़ रोशनी थी उस कमरे में...
आंखें भीचने पर भी, वह रोशनी उसे चुभ रही थी। इस बार उसने अपने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढँक लिया.. कुछ देर बाद उसे एहसास हुआ, रोशनी कुछ कम हो चुकी है और जैसे सदियों बाद उसने अपनी एक आँख खोली और अपने हाथों की उँगलियों की ओट से ही झाँका तो पाया की सामने 'जुगनू' थे.. एक.. या दो नहीं.. सैकड़ों की संख्या में.. वो भी एक साथ... शायद दरवाजा खोलने से वे सभी बाहर जा रहे थे और.. और ये क्या? ये सभी तो बाहर हॉल की छत पर लटक रहे झूमर पर टिमटिमा रहे थे.. वह रेलिंग पकड़कर उन टिमटिमाते जुगनुओं को निहारने लगा.. कदाचित वह उन जुगनुओं के आगे उस दरवाजे, कमरे और उन ' परिचित ' आवाज़ों को कुछ समय के लिए भूल गया था... पर एक बार फिर उन आवाज़ों ने किसी चुम्बक की तरह उसे अपनी और खींचा.. और इस बार वे आवाज़ें बिलकुल स्पष्ट थीं..
" नो वे विद्युत... मैं अपने रहते तुम्हे ऐसे फालतू के प्रॉफेशन चूज़ नहीं करने दूंगी.. नेवर.. " एक काईंयापन से भरपूर किसी महिला की आवाज़ उस कमरे के भीतर से उभरी।
उसने पलटकर वापस कमरे में झाँका। इस बार वहां एक भी जुगनू न थे.. केवल और केवल अंधकार भरा हुआ था जिसमें उसे चार आकृतियाँ अस्पष्ट तौर पर दिख रही थीं...
पहली आकृति ने कुछ साड़ी जैसा पहन रखा था, शायद वह कोई महिला थी और वह कर्कश आवाज़ भी शायद उसकी ही थी... उसके साथ एक युवक भी था लगभग 17-18 वर्ष का, उसके ठीक सामने उसकी ही उम्र या कुछ अधिक उम्र का एक और युवक खड़ा था और उसके ठीक बगल में एक रौबीले व्यक्तित्व का व्यक्ति।
" लेकिन मॉम... इसमें प्रॉब्लम क्या है?? " उस थोड़े अधिक उम्र वाले युवक ने जवाब दिया, शायद उसका ही नाम विद्युत था।
" आई एम ए पॉलिटिशियन... और मेरे बाद तुम्हे ही मेरी पोजीशन लेनी है.. सो ये सारे काम तुम किसी ओर के लिए छोड़ो.. वैसे भी ये सब लड़कियों पर सूट करेगा.. तुमपर नहीं.." एक बार फिर वही कर्कश आवाज़ आई।
" मॉम.. नाइंटी परसेंट फैशन डिज़ाइनर्स आर मेल.. "
" श्वेता! हम 2013 में हैं, और हम अपनी चॉइस किसी पर थोप नहीं सकते.. उसे जो करना है वो करे.. हम उसे फ़ोर्स नहीं करेंगे.. " उस रौबीले व्यक्ति ने जवाब दिया।
" ओके फाइन... मैं भी किसी और को अपने सिर पर, अब और नहीं थोप सकती... और न ही ये सुन सकती हूँ कि ' श्वेता आहूजा अपने बेटे को न संभाल पाई तो देश क्या संभालेगी..' " उसने एक घृणास्पद नज़र उस विद्युत नाम के लड़के पर डालते हुए कड़वाहट से कहा। " इसलिए मैं अपने बेटे को लेकर जा रही हूँ.. हमेशा के लिए.. " कहते हुए उसने अपने बाजू में खड़े लड़के का हाँथ पकड़ा और फर्श रौंदती हुई बाहर को चली गयी।
"..मॉम प्लीज..मॉम..सुनिए तो..ए..एकबार पापा की बात सुन लीजिए.. पापा आप रोकते क्यों.. " उन दोनों के पीछे जाता विद्युत अपने पापा की ओर पलटा जो अपनी जगह से नरादर थे। उस बाहर से आये व्यक्ति का भी कुछ यही हाल था - " अभी तो यहीं पर था.. न जाने कहाँ गायब हो गया। " कहते हुए वह अपनी नज़रे इधर उधर फेरने लगा और उसे वो दिख गया.. खिड़की पर खड़ा हुआ और तभी..
" प..पापा नो..पापा रुकिए..पापाआआ... "
" धड़ाम्म!... " की एक हृदयभेदक ध्वनि आई जब विद्युत अपने पापा की ओर बढ़ा ही था.. उन्हें रोकने के लिए पर तभी वह अनहोनी घट गई। वह बाहरी व्यक्ति भी उसी ओर लपका पर तब तक सब खत्म हो चुका था.. सब कुछ..
वे दोनों ही पथराई आंखों से खिड़की के नीचे देख रहे थे.. उस पार्थिव शरीर को.. और देखते ही देखते वह शरीर एक टिमटिमाती वस्तु में ढल गया.. वह टिमटिमाती वस्तु, खिड़की पर रखे विद्युत के हाँथ पर आ बैठा और उस बाहरी व्यक्ति ने गौर किया वह टिमटिमाती वस्तु... कोई वस्तु नहीं.. एक जीव है.. शायद..
" जुगनू "
उस जुगनू की रोशनी में ही उसने उस विद्युत नामक लड़के का चेहरा देखा-
" अरे! ये तो कुछ कुछ उसके जैसा ही दिखता है.. बस उससे थोड़ा पतला दुबला है.. दाढ़ी मूँछे भी उतनी घनी नहीं हैं.. तो वह उसके जैसा दिखने वाला ही व्यक्ति है.. य..या फिर वो खुद है?... चार साल पहले वाला.. वि..द्युत.. हाँ! उसका नाम भी तो यही है.. तो क्या अभी अभी उसने..अपने..प..पापा को खो दिया.. "
" नहीं..ईं..ईं..ईं.... " एक तेज चिल्लाहट के साथ, पसीने से तरबतर वह अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ गया।
" गॉड! सपना था.. सिर्फ एक सपना.. रिलैक्स.. कमॉन.. रिलैक्स.. " वह खुद को ही शांत कराते हुए लंबी सांसें भर रहा था। उसने खिड़की के पर्दे खोले और सूरज की किरणों को महसूस करने लगा। 'विद्युत् आहूजा' फैशन डिजाइनिंग की दुनिया का एक जाना माना नाम,उम्र केवल पच्चीस वर्ष लेकिन पच्चीस् वर्षों से इस फील्ड में काम कर रहे लोगों को टक्कर देने में बिलकुल बराबर।अपने व्यक्तित्व, खूबसूरत शक्ल और टैलेंट के चलते हमेशा सुर्खियां बटोरना उसके लिए आम बात थी। किसी को नहीं पता कहाँ से आया है, कोई परिवार का सदस्य नहीं... अकेले ही बसा है अपनी दुनिया में और सबसे ख़ास बात किसी को ये तक नहीं पता कि आखिर वो दुनिया कहाँ हैं, उसका ठिकाना पता लगा पाना आजकल के 'मीडियाकर्मी कम जासूस ज्यादा' के लिए भी अबतक संभव न हो पाया है। खिड़की से दिखता दूर तक फैला हुआ बगीचा खूबसूरती की मिसाल पैदा कर रहा था और दूर दिख रही वादियों के पीछे से सैर पर निकलने को तैयार सूरज कदाचित कुछ झांकता सा प्रतीत हो रहा था। उस घर के अलावा दूर दूर तक कहीं भी किसी घर का नामोनिशान नहीं। रोज़ यही सपना देख कर चिल्लाते हुए उठना उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा था।
" विद्युत बेटा! फिर वही सपना देखे हो क्या?? " पीछे से हाँथ में चाय लिए आते उसके घर के एक मेड ने कहा जो काफी उम्रदराज था।
" जी चच्चा! " उसने बड़ी सहजता से कहा।
" कोई बात नहीं! लो चाय पी लो.. और हमको वो जुगनू वाला जार दो.. हम बाहर बगीचे में छोड़ आते हैं.. उन सब को.. " उन्होंने एक जार की और इशारा करते हुए कहा जिसमें जुगनू भरे हुए थे पर शायद सुबह की रोशनी में कुछ साफ़ समझ नहीं आ रहे थे।
न जाने जुगनुओं से उसे कैसा प्रेम था जो वह अक्सर अलग अलग जुगनुओं से भरी जगह पर भ्रमण करता और उन्हें वहाँ से जार में भर लाता और अपनी उस ख़ास जगह के बगीचे में छोड़ दिया करता था... ठीक वैसा ही कुछ प्रेम जुगनू को भी उससे था क्यूंकी उसने जार में जुगनू भरने के लिए कभी अपने से मशक्कत नहीं की। वे सभी उसके जार रखते ही अपने आप रात के वक़्त उस जार में घुस जाते और सुबह होते ही वह जार वापस बगीचे में रखने पर वे फिर उसी के खूबसूरत बगीचे में भ्रमण करने लगते... इसी वजह से उसके जार में कभी भी किसी प्रकार की बाध्य सीमा( ढक्कन) नहीं थी और ये सिलसिला रोज़ रात और सुबह का था । विद्युत् अपना कोई भी कागजी कार्य किसी स्टडी लैंप में करने की जगह उस जुगनू से भरे जार की रोशनी में करता था।
उसने बड़ी सावधानी से वो लैंप अपने उस उम्रदराज मेड को थमाया और वे उस जार को उस बगीचे में रख आये।
विद्युत् खिड़की के पास खड़े हो कर उन जुगनुओं को जार से बाहर जाते देख रहा था... उनमे से एक जुगनू उड़ कर ठीक उनके सपने की तरह एक बार फिर उसके हाथों पर बैठ गया और न चाहते हुए भी उसकी आँखों से अतीत के आंसू का एक कतरा उसके उसी हाँथ पर आ गिरा...
क्रमशः
पर्णिता द्विवेदी..